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सितम्बर की निर्वाचित पुस्तक
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सप्ताह की पुस्तक
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तिलिस्माती मुँदरी श्रीधर पाठक द्वारा लिखा गया उपन्यास है जिसका प्रकाशन इलाहाबाद के पं॰ गिरिधर पाठक द्वारा १९१६ ई॰ में किया गया था।

"एक दिन शाम को यह योगी आसन पर बैठा हुआ अस्ताचल के पीछे डूबते हुए सूरज की सजावट को देख रहा था कि उसकी नज़र दो कौओं पर पड़ी जो कि उड़ते उड़ते खिलवाड़ कर रहे थे। लड़ते लड़ते एक उनमें से गंगा जी की धारा में गिर पड़ा। वहां पर बहाव ज़ोर का था और उसके पंख भीग कर इतने भारी हो गये थे कि उड़ने की ताकत न रख कर वह बह चला और ज़रूर डूब जाता, लेकिन योगी ने पानी में धस झट अपनी कुबड़ी की चोंच से उसे बाहर निकाल लिया और किनारे पर रख दिया। जब उसके पंख सूख गये दोनों कौए एक ऊंची चट्टान की तरफ़ जो कि गौमुखी के ठीक ऊपर थी कांव कांव करते हुए उड़ गये। योगी ने उन्हें उस चट्टान के बीचों बीच एक छोटी सी खोह में घुसते हुए देखा और थोड़ी ही देर पीछे देखता क्या है कि दोनों कौए फिर उसकी तरफ़ आ रहे है और आकर उसके पैरों के पास बैठ जाते हैं। एक कौआ एक अंगूठी योगी के पैरों पर रख देता है और योगी उसको उठा कर अपनी उंगली में पहन लेता है। मगर उसे बड़ा तअज्जुब होता है जब कि वह अंगूठी को पहनते ही कौए को यों कहते सुनता है-“ऐ मिहर्बान बड़े योगी! आज आप ने मेरी जान बचाई है। और सब चिड़ियों और जानवरों पर आप हमेशा बड़ी मिहर्बानी रखते हैं। इस लिये यह अंगूठी मैं आप को भेट करता हूं, इसे कबूल कीजिये। यह मुँदरी जादू की है और इस में यह तासीर है कि जो कोई इस को पहनता है सब चिड़ियों की बोली समझ सकता है और उन्हें जिस काम का हुक्म देता है उसे वह इसके दिखाने से उसी वक्त करने को तैयार हो जाते हैं। अगर इस वक्त हमारे लायक कोई काम हो तो हुक्म दीजिये"।..."(पूरा पढ़ें)


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पूर्ण पुस्तक
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हड़ताल जॉन गाल्सवर्दी के "Strife" नामक तीन अंकों के नाटक का हिन्दी अनुवाद है। इसका प्रकाशन "हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत", (प्रयाग) द्वारा १९३० ई॰ में किया गया।

"दोपहर का समय है, अन्डरवुड के भोजनालय में तेज़ आग जल रही है। आतिशदान के एक तरफ़ दुहरे दरवाज़े हैं, जो बैठक में जाते हैं। दूसरी तरफ़ एक दरवाज़ा है, जो बड़े कमरे में जाता है। कमरे के बीच में, एक लम्बी खाने की मेज़ है। उस पर कोई मेज़पोश नहीं है। वह लिखने की मेज़ बना ली गई है। उसके सिरे पर सभापति के स्थान पर जॉन ऐंथ्वनी बैठा हुआ वह एक बुड्ढा, बड़े डीलडौल का आदमी है। दाढ़ी मूँछ मुड़ी हुई, रंग लाल, घने सफ़ेद बाल और घनी काली भौंहें। चालढाल से वह सुस्त और कमज़ोर मालूम होता है, लेकिन उसकी आँखें बहुत तेज़ हैं। उसके पास पानी का एक गिलास रक्खा हुआ है। उसकी दाहिनी तरफ़ उसका बेटा एडगार बैठा अखबार पढ़ रहा है। उसकी उम्र ३० साल की होगी। सूरत से उत्साही मालूम होता है।" ...(पूरा पढ़ें)


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सहकार्य

रचनाकार
रचनाकार

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850 — 6 जनवरी 1885), आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक, निबंधकार, कवि, नाटककार और संपादक थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:

  1. अंधेर नगरी — नाटक
  2. भारत दुर्दशा — नाटक
  3. नीलदेवी — नाटक
  4. भारतेंदु-नाटकावली — नाटक संग्रह
  5. भारतेन्दु समग्र — भारतेंदु की रचनाओं का संग्रह

प्रतापनारायण मिश्र (24 सितंबर 1856 — 6 जुलाई 1894) हिंदी भाषा के निबंधकार, कवि, नाटककार और संपादक थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:

  1. प्रेम पुष्पावली — कविता संग्रह
  2. प्रताप पीयूष — निबंध संग्रह
  3. शैवसर्वस्व — 1890 में प्रकाशित शिव भक्तिपरक रचना

बालमुकुंद गुप्त (14 नवंबर 1865 — 18 सितंबर 1907) हिंदी के निबंधकार, कवि, नाटककार और संपादक थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:

  1. शिवशम्भु के चिट्ठे — पत्र शैली में लिखा गया व्यंग्य संग्रह

आज का पाठ

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वैष्णवता और भारतवर्ष भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित निबंध है जिसकी रचना १८८४ ई. के पूर्व की गई थी।

"यदि विचार करके देखा जायगा तो स्पष्ट प्रकट होगा कि भारतवर्ष का सबसे प्राचीन मत वैष्णव है। हमारे आर्य लोगों ने सबसे प्राचीनकाल में सभ्यता का अवलंबन किया और इसी हेतु क्या धर्म क्या नीति सब विषय के संसार मात्र के ये दीक्षागुरु हैं। आर्यों ने आदिकाल से सूर्य ही को अपने जगत् का सब से उपकारी और प्राणदाता समझ कर ब्रह्म माना और इन का मूल मंत्र गायत्री इसी से इन्हीं सूर्य नारायण की उपासना में कहा गया है। सूर्य की किरणैं 'आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः' जलों में और मनुष्यों में व्याप्त रहती हैं और इस द्वारा ही जीवन प्राप्त होता है इसी से सूर्य का नाम नारायण है। हम लोगों के जगत् के ग्रह मात्र, जो सब प्रत्येक ब्रह्‌माण्ड हैं, इन्हीं की आकर्षण शक्ति से स्थिर हैं, इसी से नारायण का नाम अनंत कोटिब्रह्‌मांडनायक है। इसी सूर्य का वेद में नाम विष्णु है, क्योंकि इन्हीं की व्यापकता से जगत् स्थित है। इसी से आर्यों में सबसे प्राचीन एक ही देवता थे और इसी से उस काल के भी आर्य वैष्णव थे।..."(पूरा पढ़ें)

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